शनिवार, 7 अप्रैल 2012

आज  के  इस  परिवेश  में  सबसे  बड़ी  चुनौती  है  की  हम  अपने  विचारों  को  जीवित  रख  सके  जो  आम  जनता  के सुख समृधि  और  सौहार्द  में  निहित  हो  ..!

शनिवार, 31 मार्च 2012

हिन्दी साहित्य एवं समाज |

जिस प्रकार मनुष्य के बिना एक समाज की परिकल्पना नही की जा सकती ठीक उसी प्रकार हिन्दी के बिना साहित्य बेजान है | साहित्य और समाज का एक गहरा सम्बन्ध है जो हमारे समाज को एक दार्शनिक रूप प्रदान करता है | सीधे एवं सरल शब्दों में हम यह कह सकते हैं की हिन्दी के बिना साहित्य और साहित्य के बिना समाज अधुरा है || साहित्य समा का दर्पण होता है जो किसी समय एवं काल को दर्शाता है | साहित्य एक सरल एवं सुगम तरीका है जिससे हम समाज के विभिन्न आयामों की परिकल्पना कर पाने में सहज समर्थ हो पाते हैंसाहित्य एक ऐसा मंच है जिसके जरिये कालांतर में घट रही घटनाओं को चित्रित की जा सके



चिंतन- मनुष्य !

मानव एक विकासौन्मुक्त प्राणी है | वह अपने जीवन काल में अनेको उत्पत्ति करता है ,सृजन करता है कल्पना करता है, अंततः विकास के उस पथ पर आरूढ़ हो जाता है जिस पर वह जीवन कल तक चलता रहता है | मनुष्य जब जन्म लेता है तब वह अबोध एवं असहाय रहता है , रोता है बिलखता है | कदाचित् उसे अपने अस्तित्व का भी ज्ञान नही है | वह भीतर से शुद्ध एवं निर्मल होता है | उसकी आत्मा दुग्ध की भांति श्वेत एवं निर्जल है ।
  धीरे धीरे जब वह बड़ा होता है ,उसके जीवन में कई उतार चढ़ाव आता है, वह उनको सहता और काटता हुआ आगे बढ़ता हैं और एक व्यवहारिक जीवन की कामना करते हुए अपने जीवन में एक विलक्षण अध्याय एवं इतिहास की रचना करता है ।
" मानव का स्थायी रवैया ही समाज के चरित्र और स्थाई आधार की संरचना करता है " ।
" मानव के मानवीय गुणों का विकाश उसके सामाजिक परिवेश पर निर्भर करता है "।
"व्यक्ति अपने काल, परीस्थियौं और परिवेश के अनुसार ही अपने व्यक्तित्व का निर्माण कर पाने सहज समर्थ हो पाता हैं " ।
"मनुष्य एक भावनात्मक प्राणी है उसमे विवेक और बुद्दि की उपस्थिति सामान रूप में होती हैं"।
"मानव की सोच उसकी क्षमता का निर्धारण करती है परन्तु उसकी क्षमता उसके सोच से कई गुना  बड़ी होती हैं"।  
" मानव  संघर्षशील प्राणी हैं, जो संघर्षरत है वह जीता हैं जब वह थक जाता है तत पश्चात ही उसके जीवन पे यमराज का हक़ हो जाता है "।

प्रस्तुत ब्लॉग के जरिये मै जन -साधारण तक अपने भावनाओं को संप्रेषित करता चाहता हूँ जिससे समाज में एक नयी धारा का प्रवाह हो सके ...मानव आज के इस अर्थ-प्रधान युग में एवं विकाश की इस अंधी दौड़ में सामाजिक-मूल्यों एवं उनके ओउचित्य को ही भुला बैठा है ....बस मै अपने कविता के माध्यम से उन सामाजिक ,सांस्कृतिक मूल्यों को  पुनः शुशोभित करना चाहता हूँ जिससे हमारा समाज ही नहीं अपितु समूचा भारत अपने जिस सभ्यता के लिए विश्व के भौगौलिक पटल पर अपनी छाप को बनाये हुए था वो ठीक उसी प्रकार बनी रहे!